इस ग़ज़ल का मतला मेरे मित्र श्री आशीष शुक्ला जी ने कहा था और यूँ ही हम दोनों ने मिलकर एक एक शेर कहते हुए एक साझा कोशिश के तहत ग़ज़ल मुकम्मल कर दी ---
है एक साँस का लफड़ा, लिया लिया न लिया,
मरीज-ऐ-इश्क़ का क्या है, जिया जिया न जिया!
जब उनकी आँखें ही हैं मयकदे से बढ़कर यूँ,
असल में जाम फिर हमने पिया पिया न पिया !
नमाज़े इश्क तो ख्वाबों में भी हो जाती है,
फिर उसके वास्ते वज़ू किया, किया न किया !
बदन ही आज तार-तार हुआ है मेरा,
फिर कोई चाक गरेबाँ, सिया सिया न सिया !
मेरी ख़ुशी की उसे जब नहीं कोई परवाह,
हिसाब अपने ग़मों का दिया, दिया, न दिया !
खैर हम प्यासे ही रह जाते हैं मयखाने से,
जहर जुनूं का है काफी, पिया पिया न पिया !
है यह अम्बेश और आशीष की साझा कोशिश,
के इस ग़ज़ल को मुकम्मल किया, किया न किया !!
अम्बेश तिवारी एवं आशीष शुक्ला
रचना-10.05.2016
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