Saturday, May 14, 2016

मैं गीत यही दोहराता हूँ !!

मैं गीत यही दोहराता हूँ !

जीवन की करुण वेदना से,
जब कुंठित मन हो जाता हूँ ;
तब गीत यही दोहराता हूँ !
मैं गीत यही दोहराता हूँ !

दिनकर की स्वर्ण रश्मियां जब,
पट खोल धरा पर नृत्य करें,
या सघन मेघ उनके पथ पर,
आकर उनको अवरूद्ध करें !
हो ग्रीष्म काल की शुष्क पवन,
या शीतल शिशिर समीर बहे ;
पर कर्मशील मानव-जीवन,
अपनी गति से गतिमान रहे !
इस जीवन-गति दावानल में,
जल कर मैं भस्म हो जाता हूँ,
कुछ और न तब कह पाता हूँ,
मैं गीत यही दोहराता हूँ !

यह बंधु-बांधव, लौकिक जन,
धन-धान्य, सम्पदा, आभूषण,
घेरे मुझको ऐसे जैसे,
कोई विषधर फैलाये फन,
कुछ प्रेमी जन हैं पर वो भी,
निज स्वार्थ विवश, निज कर्म मगन,
मेरे अंतर की पीड़ा पर,
रोता मेरा ही अंतर्मन ;
जब अपने मन की बातों को,
अपनों से नहीं कह पाता हूँ
तब गीत यही दोहराता हूँ !
मैं गीत यही दोहराता हूँ !

मेरी पीड़ा इतनी सी बस,
कोई जग में पीड़ित न हो,
कोई निर्धन लाचार दुखी,
कोई अस्वस्थ, व्यथित न हो,
न धन के लिए कहीं कोई,
भ्राता-भ्राता में हो विवाद,
कोई अधर्म पाखण्ड कपट,
छल, माया बीच भ्रमित न हो ;
इन इच्छाओं को इस युग में,
मृतप्रायः सदा ही पाता हूँ,
कुछ और न तब कह पाता हूँ ;
मैं गीत यही दोहराता हूँ !!

अम्बेश तिवारी
::14.05.2016

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