हुनरमंदी चन्द सिक्कों में सिमटती जा रही हैं,
ख़्वाहिशें कम हो रहीं हैं, उम्र बढ़ती जा रही है।
मैं कहीं राजा, कहीं जोकर, कहीं बनता ग़ुलाम,
ज़िन्दगी यह ताश के पत्तों सी बंटती जा रही है।
मैं किताबों में कहीं खोया था, बस यह सोचकर,
याद कर के वो मुझे, पन्ने पलटती जा रही है।
वक़्त बदलेगा कभी मेरा इसी उम्मीद में,
धीरे धीरे अब मेरी सूरत बदलती जा रही है।
बैल-कोल्हू की तरह अपनी धुरी में घूमता मैं,
ज़िंदगी बस बेक़रारी में गुजरती जा रही है।
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